Monday, March 16, 2009

"तन्हाई" - लेखक - "यश" (संदीप चौधरी )

"पहले हर सुबह एक उमंग लेकर आती थी ,
एक नई दिशा और जोश दे जाती थी ,
पर आज सुबह की पहली किरण बिना कुछ कहे ही खो जाती हे ,
बिना पलक झपकते ही सुबह से शाम हो जाती हे ,
बस उसके ख्यालों मैं ही डूबा रहता हूँ ,
बस यही बात मैं अपनी तन्हाई से कहता हूँ,
की वो चली गई और अब मैं तनहा रहता हूँ "!!


"पहले उसकी आवाज़ सुनकर ही दिन का आगाज़ होता था ,
उसमे ख्यालों मैं डूबकर मैं चैन की नींद सोता था,
आज नींद भी हमसे मुह फेरकर चली जाती हे ,
पहले पतझर मैं भी बहार नजर आती थी ,
आज वसंत ऋतू भी बिना बहार के चली जाती हे ,
जिन सपनो को हम सदाबहार कहकर बुलाते थे ,
आज लोग उन्हें पतझर कहकर चले जाते हे ,
बस यही बात मैं अपनी तन्हाई से कहता हूँ ,
की वो चली गई और अब मैं तनहा रहता हूँ " !!


"पहले लोग मुझे अनपढ़ कहकर बुलाते थे ,
मुझे देखकर भी अनदेखा कर जाते थे ।
उसके आने से जीवन रंगों मैं डूब गया था ,
सारा अँधेरा कहीं रौशनी मैं खो गया था ,
उसके आने से ये नीरस जीवन उत्साहित हो गया था ,
जीवन का हर पल गम से बदलकर सुकून हो गया था ,
आज वो तारा फिर से कहीं खो गया,
और उसकी याद में अनपढ़ से मैं कवि हो गया ,
बस यही बात में अपनी तन्हाई से कहता हूँ ,
की वो चली गई और अब मैं तनहा रहता हूँ "!!!

Disclaimer: This poem has nothing to do with anybody's personal life.

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